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कविता

काला कैनवास तिरछी लकीरें

तुषार धवल


वह जहाँ खड़ा है उस तक पहुँचने के सारे रास्ते
गिर गए हैं
और उसके चारों तरफ धुंध फैलती जा रही है
जबकि उसे खोजने मिथकों में जा रहे हैं लोग
वह एक द्वीप हो गया है
कोई भी भाषा चलकर उस तक नहीं आ सकती
अब वह अपने जैसा ही किसी को ढूँढ़ता है
सड़क बाज़ार और इंटरनेट पर।
सिर्फ इतना कि वह काले को काला कहता है, ग्रे नहीं
और काले को काला कह देने लायक कोई भाषा नहीं बची
अब वह जो भी कहता है पहेली की तरह लिया जाता है
जिसमें काले का अर्थ कुछ भी हो सकता है, काला नहीं
अपने लोगों के बीच एक द्वीप हो जाना
जीते जी लुप्त हो जाना है और ऐसे ही कितने लोग
अकेले लुप्त हुए जा रहे हैं
जबकि आँकड़े बताते हैं कि आबादी बढ़ रही है
यह किसकी आबादी है ?
वह इन बेरहम फासलों से हाथ उठा उठाकर चिल्लाता है और
कुछ कहता है पर व्यस्त लोग
अपनी अपनी जुगत में उसके बगल से निकल जाते हैं
वह एक काले कैनवास पर तिरछी लकीरें खींचता है और
बताता है यह मेरा समय है
जिसकी तिरछी लकीरें कैनवास के बाहर मिलकर
नई संरचना तैयार कर रही हैं
चित्र कैनवास के बाहर शून्य में आकार लेते हैं
उसका मन रोज एक खाईं बनाता है
जिसे वह रोज पार करता है
जगत इसकी व्याख्या में उलझा रहता है


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